संदेश

दादी माँ, स्त्री के बारे में - कैलाश मनहर

दादी माँ सीलन भरी कोठरी के अँधेरे कौने में कुछ चिथड़े बिखरे हैं लाल , पीले , काले , सफेद सादे और फूलोंदार घाघरे लूगड़ी और सूती धोतियाँ पेटीकोट   कुछ अपने बिसाये कुछ पीहर से लाये कुछ हाथ के सींये कुछ बेटे बहुओं के दिये   ऐरे की चौड़ी पत्तियों से बनी एक खरोली है जिसमें रखा है मोटे काँचो वाला टूटे फ्रेम का चश्मा और नियोस्प्रीन आई ओइन्टमेंट की पाँच ग्राम वाली पिचकी हुई ट्यूब जिन्हें कि अपनी दुनिया को देखते रहने की अदम्य लालसा के वशीभूत आँखों की सलामती के लिये संभाले रखती है दादी माँ   दादी माँ सठियाने-सी लगी है पोतों और पतोहुओं की दृष्टि में कि ज़माना बदल रहा है और उसे अब भी पसंद है साइकिल के टायर की डसों वाली सस्ती और घटिया चप्पलें   दादी माँ नहीं जानती कि घर में ही चला लेती हैं अब बेटियाँ और बहुयें सिलाई मशीन और छाती ढंकने के ब्लाउज़ बन जाते हैं सिर्फ़ पैंसठ सेंटीमीटर कपड़े में   दादी माँ ने   अब तक धर रखी है छींके से लटकती कोथळी में धागे की अँटी और गूदड़े सींने वाली   बड़ी नोक की सूई जिसमें धागा पिरो स

(एक)-पहाड़, (दो )-खेजड़ा - कैलाश मनहर

(एक) पहाड़ आसमान झुक रहा था उनके क़दमों पर जिन्होंने पहाड़ लाँघे हरे-भरे मैदान बुला रहे थे उन्हें बाँह पसारे   ईश्वर स्वयं उतर आया था उनकी आँखों में जिन्होंने पहाड़ काटे सिन्दूरी सूर्य के प्रकाश से थे वे तेजोद्दीप्त और जागृत   उन्हीं की हो गई समूची पृथ्वी जिन्होंने पहाड़ ढोये हरेक पहाड़ के हृदय में था करुणामय विलाप   जो भी पहाड़ों के सम्पर्क में रहा उसने यही कहा कि तभी तो है मनुष्य का होना कि वह भूल न जाये पहाड़ ढोना *कैलाश मनहर  (दो) खेजड़ा अनुकूल मौसम में पनपते हैं कीट प्रतिकूलताओं में नष्ट हो जाते हैं   नहीं कहीं नहीं है जल दृष्टि सीमा से भी दूर हर ओर पसरी हुई है रेत कहीं भी नहीं है जल या जल की सम्भावना इस मरुस्थल में   किन्तु पूरी दृढ़ता से खड़ा है हरियल खेजड़ा सूरज की ज्वाला को मुँह चिढ़ाता बादलों को अंगूठा दिखाता हुआ   रेत के प्रेम-पाश में बँधा मुस्कराता वह आग में से जल निचोड़ने वाला पारखी पूरी दृढ़ता से खड़ा है जलविहीन मरुस्थल का जीवन   ऋषिवत्   समय तेरी चुनौती स्वीकार है हमें दशाओं को कर सकता है तू अपने अधीन किन्तु हम भी

साझी-विरासत

साझी-विरासत गुलाब को नहीं जानते आप   और वह भी आपको नहीं जानता   और सच्चाई तो यह है कि   मैं भी पूरी तरह नहीं जानता गुलाब के बारे में क्योंकि   वह मौका ही नहीं देता जानने का   गुलाब ढोलकिया है हमारे इलाके का नामी   वह रतजगे और जागरण में भी ढोलक बजाता है और कव्वालों और हिंजड़ों के साथ भी ढोलक बजाता है   हनुमान जी के मन्दिर में भी ढोलक बजाता है गुलाब और पीर के चिल्ले पर भी बजाता है हर शुक्रवार   गुलाब ढाढ़ी है गुलाब मिरासी है   पाँचों वक़्त की नमाज़ पढ़ता है गुलाब और सुबह जागते ही   गायत्री मंत्र बोलते हुये सूर्य को हाथ जोड़ता है   मुसलमानों से मिलते समय अस्सलाम वालेकुम बोलता है गुलाब हिन्दुओं से मिलता है तो हाथ जोड़ कर राम राम करता है   गुलाब रोज़े रखता है पूरे महिने भर तक और पूरे महिने ही कार्तिक स्नान करता है हर वर्ष   गुलाब के बच्चे गायें चराते हैं दिन भर बस्ती वालों की और "तेरी भूरी भी चराई , तेरी काळी भी चराई" गाते हुये हर महिने उगाही करने जाते हैं घर-घर जबकि गुलाब की पत्नी ढप बजाते हुये बधावे गाने जाती है सगा

काव्‍य-कृति 'उदास आंखों में उम्‍मीद' का लोकार्पण

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राजस्‍थान प्रगतिशील लेखक संघ, जयपुर ने 18 अक्‍टूबर 2013 की शाम स्‍थानीय पिंकसिटी प्रैस क्‍लब के सभागार में कवि कैलाश मनहर की नयी काव्‍य-कृति 'उदास आंखों में उम्‍मीद' का लोकार्पण समारोह आयोजित किया। इसी अवसर पर मंच पर दिखाई दे रहे हैं - बाएं से प्रलेस के सचिव ओमेन्‍द्र, कवि प्रेमचंद गांधी, डॉ रमेश वर्मा, वरिष्‍ठ कवि विष्‍णु नागर (मुख्‍य अतिथि), कवि नंद भारद्वाज (अध्‍यक्ष), कवि कैलाश मनहर, कवि सवाई सिंह शेखावत और समीक्षक राजाराम भादू

अपनी कविता सुनाते हुए

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अपनी कविता सुनाते हुए

बाबा नागार्जुन के साथ

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बाबा नागार्जुन के साथ कवि कैलाश मनहर